Friday, April 11, 2008

फुल क्रीम या फटा दूध



सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ों के रिजर्वेशन पर मुहर लगा दी. कल सबने जमकर स्वागत किया. आज जब तह में गए तो पसीने छूट गए.

सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि वो रिजर्वेशन को राजनीतिक हथियार नहीं बनने देगी. अगर ये मिलेगा तो सिर्फ उन्हीं को जो इसके हकदार हैं.

पसीने अब उनके छूट रहे हैं जो पिछले बीस साल से इसी मुद्दे पर राजनीतिक रोटियां सेंकते आ रहे हैं. पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वाले और इसी के बूते सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाले लोग अब सकते में हैं.

सबसे बड़ा झटका लगा है क्रीमी लेयर के मुद्दे पर. सुप्रीम कोर्ट ने कोई नई बात नहीं कही है. अशोक ठाकुर बनाम केंद्र सरकार के मुकदमे में क्रीमी लेयर पर उसने वही बात कही है जो इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार के मामले में कही गई थी.

ये बात सही है कि क्रीमी लेयर की बात संविधान में नहीं कही गई है. लेकिन क्या इसी संविधान में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से पहले तक पिछड़ों के लिए रिजर्वेशन की बात है क्या.

यहां तक कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तो पिछड़ी जातियों के लिए किसी भी तरह के रिजर्वेशन के खिलाफ थे.

क्रीमी लेयर क्यों बाहर रहे

इसलिए क्योंकि उनकी आर्थिक और सामाजिक हालत को देखें तो वो किसी भी तरह से पिछड़े नहीं कहे जा सकते. पिछड़ों के नाम पर अगर उन्हें रिजर्वेशन देंगे तो वो अपने ही मदद के तलबगार भाइयों का हक मारेंगे.

इसलिए क्योंकि रिजर्वेशन का फ़ायदा उठा कर वो इस हाल में पहुंच चुके हैं कि उनकी आने वाली पीढ़ियों को इसकी दरकार नहीं.

इसलिए क्योंकि क्रीमी लेयर को परिभाषित करने वाले सरकार के आठ सितंबर १९९३ के मेमोरंडम को देखें तो ऐसे लोगों को रिजर्वेशन की ज़रूरत नहीं.

इसलिए क्योंकि रिजर्वेशन अगर जाति के आधार पर दिया जा रहा है तो आर्थिक और सामाजिक हालत देख कर उसे नकारा भी जा रहा है.

इसलिए क्योंकि पहली बार रिजर्वेशन सिर्फ जाति के आधार पर नहीं दिया जा रहा बल्कि आर्थिक हालात भी एक बड़ा फैक्टर बन गए हैं.

और, सही मायनों में यही सामाजिक न्याय है. अगड़ों को इस पर एतराज़ इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि उनका हक नहीं मारा जा रहा है. रिजर्वेशन सिर्फ़ उन्हें मिल रहा है जिन्हें वाकई इसकी जरूरत है.

ये वही लोग हैं जो संसद में, नौकरशाही में, व्यवसायों में और मीडिया में बैठकर आंकड़े गिनाते रहे हैं. पिछड़ो को रिजर्वेशन की वकालत करते रहे हैं. ताकि उनकी आने वाली पीढ़ियां तर जाएं. उनकी पार्टी को ज़्यादा सीटें मिल जाएं.

बिहार में अगर नीतीश कुमार की सरकार बनी तो बड़ी वजह थी अति पिछड़ों का उनको मिला समर्थन. ये वो लोग थे जो विकास तो छोड़िए जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करने की कश्मकश में उन अगड़े पिछड़ों से पीछे छूट गए जो आज के बिहार में माली हालत में किसी भूमिहार-जमींदार या अगड़े से पीछे नहीं रहते. कुछ यही हाल उत्तर प्रदेश का भी है.

मूलत खेती करने वाले पिछड़े का गांव में रसूख कम नहीं होता क्योंकि उसकी आर्थिक हालत ठीक-ठाक होती है. असली पिछड़ा वो है जो छोटे-मोटे धंधे में लगा है और दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करने में खुद को बेबस पाता है.

इसीलिए क्रीमी लेयर को अलग करने से असली फायदा उन तक पहुंचेगा. आप अगर साल में ढाई लाख रुपया कमाते हैं तो आपको रिजर्वेशन नहीं मिलेगा. क्योंकि पिछड़ों के ही समाज में ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जो दस साल में इतना पैसा नहीं कमा सकते.

पिछड़ेपन की परिभाषा क्या है. पिछड़ों के साथ वो समस्या नहीं रही जो दलितों या आदिवासियों के साथ रही. उनका ऊंची जातियों ने तिरस्कार नहीं किया. बल्कि किसी भी ग्राम समाज के लिए वो एक हिस्सा रहे जिसे किसी हाल में अलग नहीं किया जा सकता था.

मध्य प्रदेश को लीजिए. वहां पिछड़ों में सरकारी तौर पर मुसलमानों की कम से कम ९० जातियां शामिल हैं. इस्लाम में जातियों या अगड़ों-पिछड़ों की कल्पना नहीं है. लेकिन भारतीय मायनो में इसकी ज़रूरत थी और जिन्हें ज़रूरत है इसका फायदा मिल रहा है. इस पर न तो कोई एतराज़ करता है और न ही कर सकता है.

2 comments:

umesh chaturvedi said...

अखिलेश बाबू, ब्लॉग में आ ही गए। बधाई हो।
मौका लगे तो मेरे भी ब्लॉग पर घूम आना और बताना।
मेरा ब्लॉग है -
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उमेश चतुर्वेदी

सुबोध said...

अखिलेश जी अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर...हम जैसे नए पत्रकारों को बहुत कुछ सीखने का मंच मिल गया..