Monday, April 21, 2008

बीजेपी का घमासान

अगले लोक सभा चुनाव की तैयारियों में जुटी बीजेपी के लिए ये बहुत बुरी ख़बर है. पहले बिहार तो अब महाराष्ट्र, दो महत्वपूर्ण राज्यों में पार्टी में बग़ावत साफ़ दिखाई दे रही है.


पहले बात गोपीनाथ मुंडे की. प्रमोद महाजन के बहनोई मुंडे महाजन के रहते राज्य ईकाई के सर्वेसर्वा बने रहे. दोनों में सहमति रही कि महाजन दिल्ली में बैठ कर महाराष्ट्र बीजेपी को अपने डंडे से हांकते रहेंगे और मुंडे वहां उनके प्रतिनिधि रहेंगे.


लेकिन महाजन के निधन के बाद तस्वीर बदल गई. बीस साल से दबे-कुचले रहे महाराष्ट्र बीजेपी के दूसरे नेताओं की महत्वाकांक्षा सिर उठाने लगी. राज्य बीजेपी के अध्यक्ष नितीन गडकरी ने इसमें पहल की. केंद्रीय नेतृत्व ने भी मौके की नज़ाकत भांपते हुए गड़करी के इरादों को हवा दी.


इस बीच, मुंडे महाजन से हुई खाली जगह को भरने के लिए दिल्ली की राजनीति में आ गए. उन्हें पार्टी ने महासचिव बना दिया. वो राजस्थान के प्रभारी भी रहे. पिछले साल जाट-गुर्जर संघर्ष को सुलझाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई.


लेकिन दिल्ली में रहते हुए भी मुंडे की नज़रें महाराष्ट्र पर ही लगी रहीं. पर पहले जैसी बात नहीं रही. चाहे शिवसेना से गठबंधन का सवाल हो, या फिर राज्य सभा और विधान परिषद के उम्मीदवारों के चयन का, मुंडे अपनी बात नहीं मनवा सके. हर जगह नितीन गड़करी का पलड़ा ही भारी रहा.


मुंडे को करारा झटका तब लगा जब मधु चव्हाण को मुंबई बीजेपी का अध्यक्ष बना दिया गया. वो किरीट सोमैय्या या फिर राज पुरोहित को अध्यक्ष बनवाना चाहते थे. ये दोनों ही नेता महाजन के वफादार रहे हैं. राज पुरोहित से मेरी मुलाकात जयपुर में भी हुई थी जहां वो जाट गुर्जर विवाद सुलझाने में मुंडे की मदद कर रहे थे.


लेकिन महाजन के साये से महाराष्ट्र बीजेपी को दूर करने में लगे केंद्रीय नेतृत्व ने तरज़ीह दी मधु चव्हाण को. वो इसलिए क्योंकि वरिष्ठता में ये दोनों ही नेता उनका मुकाबला नहीं कर सकते. आखिर महाजन पर आरोप भी तो यही लगता रहा कि उन्होंने राज्य में अपनी कोटरी से अलग लोगों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर उनके पर काटे.


यही बात मुंडे को रास नहीं आई. राज्य सभा की उम्मीदवारी में भी रेखा महाजन को टिकट नहीं मिल सका. और प्रकाश जावड़ेकर का पत्ता काटने के लिए आखिरी मौके पर दत्ता मेघे तक का नाम चलवा दिया गया था.


मुंडे से नुकसान


लेकिन मुंडे की ये नाराज़गी बीजेपी के लिए बुरा संकेत है. मुंडे का महाराष्ट्र की राजनीति में अपना कद है. लोक सभा चुनाव से ठीक पहले इस ओबीसी नेता का मुंह फुलाना बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.


औरंगाबाद और उसके आस-पास के इलाकों में मुंडे काफी असर रखते हैं. वो राज्य के उप मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. ऐसे में उनका नाराज़ होना राज्य में नए समीकरणों को जन्म दे सकता है.


ख़बर है कि वो छगन भुजबल के संपर्क में हैं. ये दोनों नेता मिल कर नया गुल खिला सकते हैं. उधर, राज ठाकरे भी इसी इंतज़ार में हैं कि उनके साथ कोई बड़े नेता आएं.


इसीलिए मौके की नज़ाकर भांप कर केंद्रीय नेतृत्व सक्रिय हो गया है. बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा है कि मुंडे का इस्तीफा स्वीकार नहीं किया जाएगा. साथ ही, उन्हें मनाने की कोशिशें भी तेज़ हो गई हैं.


लेकिन राजनीतिक विश्लेषण ये कहता है कि मुंडे ने ये कदम उठा कर जल्दबाजी दिखाई है. बीजेपी से अलग हो कर वो चाहे आने वाले चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुंचाएं लेकिन वो खुद भी फायदे में नहीं रहेंगे. बीजेपी में रहना सिर्फ उन्हीं के नहीं बल्कि पूनम महाजन के भविष्य का भी सवाल उठाता है जो दक्षिण मुंबई से लोक सभा का चुनाव लड़ने की तैयारियों में जुटी हैं.


ये बीजेपी का इतिहास भी बताता है कि जो नेता उससे अलग हुए वो कामयाब नहीं हो सके. उन्होंने बीजेपी को तो नुकसान पहुंचाया लेकिन खुद भी ज़्यादा कुछ हासिल नहीं कर सके और आखिरकार लौट कर बीजेपी में ही आना पड़ा.


पार्टी के एक नेता ने मुझसे कहा है कि बॉक्सिंग रिंग में रह कर आप चाहे अपने प्रतिद्वंद्वी पर कितने ही प्रहार कर लें लेकिन रिंग से बाहर निकलते ही आपका मुकाबला ख़त्म हो जाता है. इसलिए बीजेपी में अगर अपनी बात मनवानी है तो रिंग में रहना ज़रूरी है.

Wednesday, April 16, 2008

बात बहस की

संसद में बुधवार को महंगाई पर बहस हुई. कई बार पत्रकार दीर्घा में बैठ कर संसद में होने वाली सार्थक बहसों का लुत्फ लिया है. ये बहस भी वैसी ही रही.


वैसे देखा जाए तो इस बहस के दो पहलू रहे. पहला तो ये कि महंगाई के मुद्दे पर मंगलवार को संसद न चलने देने वाले सांसदों ने ये साबित कर दिया कि उनकी ज्यादा दिलचस्पी हंगामा करने और मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचने में रहता है. जब ये बहस हुई तब दोनों ही सदनों में कोरम तक पूरा नहीं हो पाया. मुट्ठी भर सांसद महंगाई जैसे गंभीर और आम आदमी से जुड़े मुद्दे पर हुई बहस से रूबरू रहे.


चूंकि राज्य सभा हाऊस ऑफ एल्डर्स कहा जाता है लिहाज़ा ज़्यादा मंझे हुए वक्ता भी यही मिलते हैं. इस बहस की शुरुआत की बीजेपी के नेता मुरली मनोहर जोशी ने. उन्होंने सरकार पर महंगाई से निबटने में नाकाम रहने का आरोप लगाया.


जोशी ने ख़ासतौर से कपिल सिब्बल की खिंचाई की. सिब्बल कह चुके हैं कि सरकार के पास महंगाई से लड़ने के लिए कोई जादू की छड़ी नहीं है. जोशी ने कहा कि सरकार के पास चाहे ये छड़ी हो न हो लेकिन जब उसकी जनता की छड़ी से पिटाई होगी तो उसे पाताल में भी छुपने की जगह नहीं मिलेगी.


सरकार की ओर से कांग्रेस के पी जे कुरियन ने मोर्चा संभाला. कुरियन ने माना कि पिछले छह महीनों में बेतहाशा महंगाई बढ़ी है. लेकिन उनका मानना है कि यूपीए सरकार ने अपनी ओर से इस पर अंकुश लगाने की भरपूर कोशिश की है. कुरियन ने सरकार का ये आरोप दोहराया कि महंगाई की बड़ी वजह है राज्य सरकारों की नाकामी.


असली मज़ा आया खांटी समाजवादी और बुजुर्ग नेता जनेश्वर मिश्र को सुनने में. उन्हें जब भी सुनता हूं तो चंद्रशेखर की याद आती है. बिल्कुल बेबाक. अभी बीमार हैं. इसलिए बैठे-बैठे ही भाषण दिया. शुद्ध हिंदी में देसी अंदाज़ में जैसे अखाड़े में किसी को धोबी पाट से चित कर रहे हों वैसे ही धीरे-धीरे मंझे अंदाज़ में मनमोहन सिंह सरकार को जमकर रगड़ा.


उन्होंने कहा कि ज़रूरी चीज़ों के वायदा कारोबार ने महंगाई को बढ़ाया है. उन्होंने फ्यूचर ट्रैडिंग को डाकुओं का अड्डा बताया. नई हरित क्रांति की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. कहा, राहुल गांधी का नाम आगे बढ़ने से मनमोहन सिंह की कुर्सी पर खतरा मंडरा रहा है. इसलिए महंगाई से निबटने के लिए नई-नई शातिर तरकीबें ईजाद की जा रही हैं.


फिर बोले सीताराम येचुरी. कहा एक तरफ है चमकता भारत तो दूसरी तरफ है तड़पता भारत. उन्होंने सरकार को आगाह किया कि दोनों भारतों का अंतर पाटे नहीं तो बहुत देर हो जाएगी. येचुरी को सुनने में भी बहुत मज़ा आता है क्योंकि उनके भाषण तथ्यों पर आधारित होते हैं. वो अपने तर्कों के समर्थन में मज़बूत आँकड़े पेश करते हैं. बिना लाग लपेट के वो अपनी बात कह जाते हैं.


ऐसे में पत्रकार दीर्घा से बाहर निकल कर बस एक ही ख़्याल आया. मैंने उन सांसदों के बारे में सोचा जो दुनिया भर की मटरगश्तियों में मसरूफ़ होंगे. जो मौक़ा मिलने पर सिर्फ़ हंगामा करते हैं. लेकिन गंभीर बहस के दौरान सदनों से गैर हाज़िर रहते हैं.


मीडिया के बारे में भी सोचा कि ये गंभीर सार्थक बहस कितने न्यूज़ चैनल्स के प्राइम टाइम बुलेटिन की हेडलाइन तो छोड़ें अगर बुलेटिन का हिस्सा भी बन पाए तो गनीमत है. ऐसे में उन सांसदों का क्या कसूर जिन्हें अपनी शक्ल टीवी पर दिखवाने के लिए हंगामे के अलावा कोई और रास्ता नज़र नहीं आता.ब

Friday, April 11, 2008

फुल क्रीम या फटा दूध



सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ों के रिजर्वेशन पर मुहर लगा दी. कल सबने जमकर स्वागत किया. आज जब तह में गए तो पसीने छूट गए.

सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि वो रिजर्वेशन को राजनीतिक हथियार नहीं बनने देगी. अगर ये मिलेगा तो सिर्फ उन्हीं को जो इसके हकदार हैं.

पसीने अब उनके छूट रहे हैं जो पिछले बीस साल से इसी मुद्दे पर राजनीतिक रोटियां सेंकते आ रहे हैं. पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वाले और इसी के बूते सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाले लोग अब सकते में हैं.

सबसे बड़ा झटका लगा है क्रीमी लेयर के मुद्दे पर. सुप्रीम कोर्ट ने कोई नई बात नहीं कही है. अशोक ठाकुर बनाम केंद्र सरकार के मुकदमे में क्रीमी लेयर पर उसने वही बात कही है जो इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार के मामले में कही गई थी.

ये बात सही है कि क्रीमी लेयर की बात संविधान में नहीं कही गई है. लेकिन क्या इसी संविधान में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से पहले तक पिछड़ों के लिए रिजर्वेशन की बात है क्या.

यहां तक कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तो पिछड़ी जातियों के लिए किसी भी तरह के रिजर्वेशन के खिलाफ थे.

क्रीमी लेयर क्यों बाहर रहे

इसलिए क्योंकि उनकी आर्थिक और सामाजिक हालत को देखें तो वो किसी भी तरह से पिछड़े नहीं कहे जा सकते. पिछड़ों के नाम पर अगर उन्हें रिजर्वेशन देंगे तो वो अपने ही मदद के तलबगार भाइयों का हक मारेंगे.

इसलिए क्योंकि रिजर्वेशन का फ़ायदा उठा कर वो इस हाल में पहुंच चुके हैं कि उनकी आने वाली पीढ़ियों को इसकी दरकार नहीं.

इसलिए क्योंकि क्रीमी लेयर को परिभाषित करने वाले सरकार के आठ सितंबर १९९३ के मेमोरंडम को देखें तो ऐसे लोगों को रिजर्वेशन की ज़रूरत नहीं.

इसलिए क्योंकि रिजर्वेशन अगर जाति के आधार पर दिया जा रहा है तो आर्थिक और सामाजिक हालत देख कर उसे नकारा भी जा रहा है.

इसलिए क्योंकि पहली बार रिजर्वेशन सिर्फ जाति के आधार पर नहीं दिया जा रहा बल्कि आर्थिक हालात भी एक बड़ा फैक्टर बन गए हैं.

और, सही मायनों में यही सामाजिक न्याय है. अगड़ों को इस पर एतराज़ इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि उनका हक नहीं मारा जा रहा है. रिजर्वेशन सिर्फ़ उन्हें मिल रहा है जिन्हें वाकई इसकी जरूरत है.

ये वही लोग हैं जो संसद में, नौकरशाही में, व्यवसायों में और मीडिया में बैठकर आंकड़े गिनाते रहे हैं. पिछड़ो को रिजर्वेशन की वकालत करते रहे हैं. ताकि उनकी आने वाली पीढ़ियां तर जाएं. उनकी पार्टी को ज़्यादा सीटें मिल जाएं.

बिहार में अगर नीतीश कुमार की सरकार बनी तो बड़ी वजह थी अति पिछड़ों का उनको मिला समर्थन. ये वो लोग थे जो विकास तो छोड़िए जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करने की कश्मकश में उन अगड़े पिछड़ों से पीछे छूट गए जो आज के बिहार में माली हालत में किसी भूमिहार-जमींदार या अगड़े से पीछे नहीं रहते. कुछ यही हाल उत्तर प्रदेश का भी है.

मूलत खेती करने वाले पिछड़े का गांव में रसूख कम नहीं होता क्योंकि उसकी आर्थिक हालत ठीक-ठाक होती है. असली पिछड़ा वो है जो छोटे-मोटे धंधे में लगा है और दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करने में खुद को बेबस पाता है.

इसीलिए क्रीमी लेयर को अलग करने से असली फायदा उन तक पहुंचेगा. आप अगर साल में ढाई लाख रुपया कमाते हैं तो आपको रिजर्वेशन नहीं मिलेगा. क्योंकि पिछड़ों के ही समाज में ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जो दस साल में इतना पैसा नहीं कमा सकते.

पिछड़ेपन की परिभाषा क्या है. पिछड़ों के साथ वो समस्या नहीं रही जो दलितों या आदिवासियों के साथ रही. उनका ऊंची जातियों ने तिरस्कार नहीं किया. बल्कि किसी भी ग्राम समाज के लिए वो एक हिस्सा रहे जिसे किसी हाल में अलग नहीं किया जा सकता था.

मध्य प्रदेश को लीजिए. वहां पिछड़ों में सरकारी तौर पर मुसलमानों की कम से कम ९० जातियां शामिल हैं. इस्लाम में जातियों या अगड़ों-पिछड़ों की कल्पना नहीं है. लेकिन भारतीय मायनो में इसकी ज़रूरत थी और जिन्हें ज़रूरत है इसका फायदा मिल रहा है. इस पर न तो कोई एतराज़ करता है और न ही कर सकता है.

Wednesday, April 9, 2008

मोदी की किताब


गुरू की किताब आए तो चेला पीछे कैसे रहे.

नरेंद्र मोदी की किताब ज्योति पुंज जारी होने वाली है. इसे आरएसएस के महासचिव मोहन भागवत जारी करेंगे.

इस किताब में मोदी ने आरएसएस के कुछ जाने तो कुछ अनजाने चेहरों की कहानी लिखी है.

हालांकि लोगों को उम्मीद थी कि मोदी एक किताब ये भी लिखें कि आखिर उन्हें गुजरात में लगातार दो बार जीत किस तरह हासिल हुई.

वो ये भी बताएं कि गोधरा कांड के बाद हुए दंगों की असली कहानी क्या है. क्या इसी वजह से उन्हें जीत मिली.

सोहराबुद्दीन की मुठभेड़ का मामला क्या है. मौत के सौदागर के सोनिया गांधी के बयान का जवाब देने की रणनीति उन्होंने कैसे तैयार की.

क्यों उन्होंने अपने चुनाव प्रचार में सिवाए अपने किसी का नाम नहीं लिया. क्यों उनके भाषणों में खुद का नाम पचास बार तो बीजेपी का नाम पांच बार आता रहा.

आरएसएस से रिश्ते

नरेंद्र मोदी ने शुरूआत पूर्णकालिक प्रचारक से की. यानी आरएसएस के वो सदस्य जो अपना सब कुछ छोड़ कर संगठन के लिए पूरी तरह से समर्पित हो जाते हैं.

गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद और गोधरा कांड और उसके बाद हुए दंगों के बाद मोदी हिंदू ह्रदय सम्राट के रूप में पेश किए गए.

पूरे संघ परिवार ने भी उन्हें बेहद पसंद किया. संघ को लगा कि कल्याण सिंह, उमा भारती के बाद अब उन्हें असली पोस्टर बॉय मिल गया है.

फिर मोदी के संघ के साथ रिश्ते बिगड़ने शुरू हुए. शुरूआत हुई भारतीय किसान संघ के आंदोलन से. तब गुजरात पुलिस ने बीकेएस के दफ्तर में घुस कर हेड़गेवार और गोलवलकर की तस्वीरों को सड़क पर फेंक दिया.

फिर संजय जोशी की कथित सेक्स सी़डी आई. इस सीडी ने एक अच्छे भले नेता का करियर बर्बाद कर दिया.

प्रवीण तोगड़िया ये कहते फिरे कि ३२ लोगों की सीडी बनवाई गई. उन्होंने मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.

वीएचपी, भारतीय किसान संघ, बजरंग दल और यहां तक कि आरएसएस का गुजरात का एक बड़ा तबका मोदी के खिलाफ हो गया.

इसके बावजूद नरेंद्र मोदी जीते. उनकी जीत से साफ हो गया कि उन्होंने अपना कद पार्टी और संगठन से ऊपर कर लिया. उन्होंने अपने वैचारिक परिवार को दिखा दिया कि व्यक्तित्व का करिश्मा सब पर भारी पड़ता है.

लेकिन इसके बावजूद अब वो आरएसएस से अपने संबंध सुधारने में लगे हैं. क्योंकि उन्हें आडवाणी के बाद बीजेपी का नेता कहा जाने लगा है, वो भी ये जानते हैं कि बिना संघ के आशीर्वाद के वो आगे नहीं बढ़ सकते. ज्योतिपुंज इसीलिए सामने आ रही है.

चीन के तीन टी


ये तस्वीर चीन की दीवार की है। अभी मुश्किल से तीन महीने पहले वहां गया था।

आज पूरी दुनिया मे ओलम्पिक मशाल के चर्चे हैं। कही इसे छीना जा रहा है और कही इसे बुझाने की कोशिश की जा रही है।
भारत में ये मशाल आ रही है। चीन ओलम्पिक के बहाने अब ये साबित करने में लगा है कि तिब्बत पर उसका कब्ज़ा जायज़ है।
मेरी चीन यात्रा में मेरे साथ रही ट्रांसलेटर ने चीन के बारे में कुछ बेहद दिलचस्प बातें बताईं।

पहली तो ये कि वो मंगोलियन थी. इसमें दिलचस्प बात ये थी कि चीन की दीवार मंगोलियाई आक्रमण को रोकने के लिए बनाई गई थी।
लेकिन उसने कहा कि दीवार ने किसी जमाने में मंगोलियाईयों को दूर ज़रूर रखा होगा लेकिन अब वो बड़ी संख्या में चीन में ही हैं। ये उसके हिसाब से बदलते वक़्त की निशानी है।

फिर भी, चीन में अगर कुछ नहीं बदला है तो वो है तीन टी.
तीन टी यानी तिब्बत, ताईवान और थ्यानमन चौक।

पहले दो साम्यवादी चीन के साम्राज्यवादी रवैये को बताते हैं तो तीसरा लोकतंत्र के प्रति उसकी विरक्ति और घृणा को.
इसीलिए बाईचंग भूटिया को सलाम करने को दिल चाहता है। और यही दिल आमिर खान से सवाल भी करना चाहता है।
आमिर खान कहते हैं कि वो मशाल लेकर दौड़ेंगे ज़रूर क्योंकि मशाल का सरोकार ओलंपिक से है। ये सिर्फ इत्तफाक है कि ओलंपिक इस बार चीन में हो रहे हैं।

लेकिन मशाल उनके हाथों में होगी और होंठों पर तिब्बत के लोगों के लिए दुआ होगी. दुआ के लिए हाथ नहीं उठेंगे. सिर्फ होंठ हिलेंगे.

ऐसी दुआ किस काम की। ये आपके और मेरे सोचने की बात है।

Tuesday, April 8, 2008

मनमोहन के बाद कौन?


अभी आम चुनाव में वक़्त है। ये कम से कम कांग्रेस पार्टी कहती है. लेकिन अंदर ही अंदर सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं.

अभी सिर्फ़ दो पार्टियों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार सामने आए हैं। पहला बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी तो दूसरा बीएसपी की मायावती।

हमारे लोकतंत्र में वही होता है जिसकी उम्मीद किसी ने न की हो.


किसने सोचा था कि सन् २००४ में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनेंगे। आखिर तो सोनिया गांधी राष्ट्रपति भवन गई ही थीं. उन्हें कांग्रेस और यूपीए ने अपना नेता चुन ही लिया था. लेकिन आखिर में मनमोहन सिंह का नाम सामने आया.


चुनाव चाहे अक्तूबर नवंबर में हो या फिर अगले साल मई में। अभी इस सवाल का जवाब पक्के तौर पर नहीं दिया जा सकता है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा.

फिर भी, कुछ नाम तो सामने हैं ही।

मनमोहन सिंह


ये सोनिया गांधी ही तय करेंगी कि यूपीए का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा। मनमोहन सिंह का नाम इसलिए क्योंकि चाहे सरकार सोनिया गांधी ने चलाई हो लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के बाद पांच साल तक गठबंधन की सरकार चलाने का सेहरा तो उन्हीं के सिर बंध रहा है.


वो इसलिए भी क्योंकि इस अर्थशास्त्री ने पिछले पांच साल में भारत को आर्थिक तरक्की के नए मुकाम पर पहुंचाया है।


अगले चुनाव में अगर यूपीए को बहुमत मिलता है तो मनमोहन सिंह का नाम सबसे आगे रहेगा।

राहुल गांधी


वो कांग्रेस पार्टी के घोषित युवराज हैं। पीएम इन वेटिंग हैं. मनमोहन सिंह ने भऱत की तरह नेहरू खानदान की खड़ाऊ संभाल कर रखी हैं क्योंकि उन्हें भी असली वारिस का इंतजार है.

कुछ हिस्सों को छोड़ दें तो हमारा लोकतंत्र ऐसे ही चलता रहा है।

कांग्रेस चुनाव से ठीक पहले उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चला कर एक बड़ा राजनीतिक दांव चल सकती है।

लाल कृष्ण आडवाणी

वो एनडीए की ओर से घोषित उम्मीदवार हैं। ये उनका आखिरी चुनाव भी है। उनका गठबंधन महंगाई, आतंकवाद और कथित अल्पसंख्यक तुष्टिकरण जैसे मुद्दे उठाएगा.


उनकी किताब आई है। माई कंट्री माई लाइफ़. उसके बारे में चर्चा कभी और करूंगा. लेकिन ये किताब बताती है वो प्रधानमंत्री बनने के लिए कितना बेचैन हैं.

अगर कांग्रेस राहुल गांधी का दांव चलती है तो अगले चुनाव में आडवाणी को अपने से आधी उम्र के नेता से मुकाबला करना होगा।

मायावती


देश के हर नेता की तरह वो भी प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं। अपनी इस इच्छा को छिपाती भी नहीं हैं.


उत्तर प्रदेश में अपने बूते पर सरकार बनाई है। ब्राह्मणों और दलितों को नया समीकरण बनाया है. अब इसी के बूते यूपी में लोक सभा की कम से कम पचास सीटें पाना चाहती हैं.


खिचड़ी सरकार बनने के आसार में मायावती अपनी इच्छा ज़रूर पूरा करना चाहेंगी। अगर प्रधानमंत्री न बनें तो कम से कम उपप्रधानमंत्री ही बन कर.


मुलायम सिंह यादव

जिस लालू यादव ने एक बार उनके प्रधानमंत्री बनने की राह में रोड़े अटकाए थे अब वो उनसे गलबईंया कर रहे हैं।


इसलिए नहीं कि वो उनको प्रधानमंत्री बनवाना चाहते हैं। बल्कि इसलिए कि यूपीए की स्थिति मजबूत हो सके.


लेकिन ये इस पर निर्भर करता है कि मुलायम यूपी में अपनी खोई ताकत पाते हैं या नहीं।


और आखिर में....

रामदास अठावले या उनके जैसा कोई और...
(क्योंकि जब एच डी देवेगौडा और इंदर कुमार गुजराल बन सकते हैं तो फिर कोई भी बन सकता है प्रधानमंत्री)

प्रवेश निषेध


लघु कथा

वहां लिखा था- कृपया भगवानजी की मूर्तियों को टीका-सिंदूर न लगाएं. हनुमान जी की प्रतिमा के इश्तहार में लिखा था-कृपया महिलाएं मूर्ति को न छुएं.

ये मंगलवार का दिन है. श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही है. साड़ी आगे खड़ी है उसके पीछे जींस. मज़ाल है कि मंदिर की चौखट पार कर जाएं. हनुमानजी को छूना तो दूर की बात.

मंदिर की सीढ़ियों पर बच्चों की भीड़ है. लेकिन जींस सलवार कमीज़ नहीं. गंदे, मैले-कुचैले बच्चे. प्रसाद की आस में. आस-पास की बस्तियों से आए हुए.

अचानक शोर उठता है. एक बच्ची ज़ोर से रोने लगती है. आपा-धापी में उसे प्रसाद नहीं मिलता. कसूर उसके छोटे कद का है. उसके नन्हे हाथ उठते हैं लेकिन देने वाले के हाथों तक नहीं पहुंच पाते.

एक बड़ी गाड़ी आकर रुकती है. उससे मां-बहन की गालियां इन बच्चों के लिए. सालों ठीक से नहीं बैठ सकते. शोर क्यों कर रहे हो.

सीढ़ियों से चौखट तक. हर जगह प्रवेश निषेध.

मेरी कही

मित्रों,
मेरी कही पर आपका स्वागत है। करीब दो साल हो गए. सुनते-सुनते कान भी पक गए. सब कहते रहे कि कुछ लिखा करो. मैं लिखना भी चाहता रहा. लेकिन हो न सका. अब ब्लॉग के रूप में ये नया माध्यम मिला है. आप तक मेरी बात पहुंचाने का.


मेरी कही में आपको बहुत कुछ पढ़ने को मिलेगा. लेकिन ख़ासतौर से राजनीति और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर. यही मेरी दिलचस्पी के विषय हैं.


आपको कई बार मेरी कही के ज़रिए नई जानकारी भी मिलेगी। आप इसका इस्तेमाल भी कर सकेंगे।


कृपया मेरा हौंसला बढ़ाएं। मेरी कही को अपनी सुनी बनाएं. इस ब्लॉग पर आएं और अपने दोस्तों को भी बताएं.


धन्यवाद,


अखिलेश शर्मा